सोमवार, 2 मई 2016

दिल्ली मेट्रो सुरक्षाकर्मियों की ग़ुंडागर्दी

दिल्ली मेट्रो सुरक्षाकर्मियों की ग़ुंडागर्दी


21 अप्रैल को शाम 4 बजे की ट्रेन से मुझे इलाहाबाद जाना था। ट्रेन, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से पकड़नी थी। मैं नोएडा के सेक्टर 16 मेट्रो स्टेशन से राजीव चौक के लिए रवाना हुआ। राजीव चौक से मुझे ट्रेन चेंज कर नई दिल्ली स्टेशन जाना था। 3:30 PM पर मैं राजीव चौक के अंडरग्राउंड प्लेटफ़ॉर्म पर पहुंचा और ट्रेन का इंतज़ार करने लगा। एक मिंनट भी नहीं हुआ था, कि मैंने वहां कुछ शोर-शराबा सुना। मेरे समेत कई लोग शोर की तरफ़ दौड़े। मैंने देखा, कि 10-12 की तादाद में मेट्रो के सिक्युरिटी गार्ड एक महिला को घेरे हुए थे। कुछ सिक्युरिटी गार्ड उसे घसीट कर दूसरी तरफ ले जा रहे थे। इस कोशिश में सुरक्षा गार्डों ने उसकी पिटाई भी की। 

हैरानी की बात है, कि वहां सिर्फ़ एक महिला सुरक्षा गार्ड मौजूद थी। आरोपी महिला, पुरुष सुरक्षाकर्मियों के शिकंजे में थी, जो उसके विरोध को दबाने के लिए उसे थप्पड़ मार रहे थे। मैंने वहां पहुंचते ही अपना मोबाइल कैमरा ओपेन कर लिया था। एक सुरक्षाकर्मी ने कैमरे को तुरंत बंद करने की हिदायत दी। लेकिन ख़ुद के मीडिया से होने का हवाला देकर मैंने कैमरा बंद करने से इनकार कर दिया। बाद में 10 से ज़्यादा की तादाद में सुरक्षाकर्मी मेरे पास पहुंचे। उनमें से कुछ मुझसे आक्रामक भाषा में बात कर रहे थे। उन्होंने कहा, कि आप तो मींडियावाले हो, कुछ का कुछ दिखा दोगे। मेट्रो सुरकक्षाकर्मियों ने महिला को जेबकतरी बताते हुए ख़ुद को सही साबित करने की कोशिश की। 


इस बीच एक सुरक्षा टीम आरोपी महिला को लेकर वहां से जा चुकी थी। मुझसे कुछ मिनट की बहस के बाद बाक़ी सुरक्षाकर्मी भी अपने रास्ते चले गए। मैं आगे के लिए रवाना हुआ। मेरे मन में बार-बार यही ख़्याल आ रहे थे, कि अगर आरोपी महिला वास्तव में किसी की जेब काट रही थी, तो भी उसे सरेआम इस तरह घसीटा और पीटा कैसे जा सकता है ? पुरुष सुरक्षाकर्मी किसी महिला के बदन को कैसे छू सकते हैं और उन्हें उसे पीटने का क्या हक़ है ?

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

ए बी वर्धन: एक जन नेता





साल 2004 का मई महीना था। 13 तारीख को घोषित हुए चुनावी नतीजों में कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने भारतीय जनता पार्टी के एनडीए को बुरी तरह से मात दी थी। उस दौर में अटल बिहारी वाजपेई सरकार की नाकामियों का ठीकरा विनिवेश मंत्रालय पर भी फूटा था। अटल सरकार के उस नए बनाए गए मंत्रालय के खिलाफ चुनाव के दौरान और उससे पहले खूब माहौल बनाया गया था। बहरहाल चुनाव परिणाम में 61 सीट पाने वाले वामपंथी संगठनों के सूरमा भी गदगद थे। सालों से देश की राजनीति और वाम दलो के बड़े नेता के तौर पर शुमार होते रहे ए बी वर्धन भी पूरे जोश में थे। सरकार गठन से पहले उनसे किसी पत्रकार ने सवाल किया, विनिवेश मंत्रालय का क्या होगा ?” उनका जवाब था, भाड़ में गया विनिवेश मंत्रालय”…ये बानगी थी उस राजनीतिक परिवेश की जिसे कॉमरेड ए बी वर्धन ने जिया था, उन वामपंथी और सामाजिक उसूलों के लिए, जिनके सपने उन्होंने अपनी नौजवानी यानी आजादी के पहले चालीस के दशक में देखे थे। बेशक देश में आम आदमी के हालात में चमत्कारिक परिवर्तन नहीं हुए,  लेकिन ऐसा नहीं है, कि तस्वीर नहीं बदली। इस बदलाव के लिए जिस जीवटता की जरूरत थी, उसके लिए ए बी वर्धन के कदम ताज़िंदगी नहीं लड़खड़ाए।
2 जनवरी को 92 साल की उम्र में ए बी वर्धन दुनिया छोड़ गए। तबीयत बिगड़ने के बाद उन्हें दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में भर्ती कराया गया था। वहीं उन्होंने अंतिम सांस ली। कॉमरेड वर्धन संयुक्त भारत के बारिसाल (अब बांग्लादेश में) में जन्मे थे। वो उन वामपंथी नेताओं में शुमार थे जो अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी का हिस्सा रहे। उस दौर में वो ऑल इंडिया स्टूडेंट फ़ेडरेशन के सक्रिय नेता थे। 1941-42 में वे नागपुर यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार वसंत साठे को हराया था, जो बाद में कांग्रेस में शामिल हुए। कॉमरेड वर्धन ने 1957 में नागपुर से विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाई और जीत भी हासिल की। 1967 और 1980 में वे नागपुर से लोकसभा चुनाव में उतरे, लेकिन दोनों बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद वो चुनावी राजनीति से अलग होकर पार्टी संगठन की सियासत में सक्रिय हो गए। 1996 में इंद्रजीत गुप्ता के केंद्रीय मंत्री बनने के बाद वर्धन सीपीआई के महासचिव बनाए गए। महाराष्ट्र में आंदोलनों की बात करें, तो वहां मजदूर संगठनों को खड़ा करने और उसे मजबूत बनाने में उनका बड़ा योगदान था।
ए बी वर्धन कई भाषाएं जानते थे। वे हिंदी के बेहतरीन वक्ता थे। अंग्रेजी, मराठी और बंग्ला भाषा भी वो धाराप्रवाह बोलते थे। पार्टी के कार्यक्रमों में वो वाम संगठन के गीत पूरे सुर में गाते थे। रचनात्मक प्रवृत्ति के धनी कॉमरेड वर्धन ने एक दर्जन से ज्यादा किताबें लिखीं। उनकी किताबों के केंद्र में समाजवादी व्यवस्था की स्थापना, मजदूर संगठन, दलित वर्ग की समस्याएं और फिरकों में बटे समाज की चिंताएं थीं। ए बी वर्धन ट्रेड यूनियनों के प्रबल पक्षधर थे। ये उनका व्यक्तित्व था, कि परस्पर विरोधी विचारधारा के भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठन भी कई बार मजदूर हितों के लिए उनके साथ खड़े हुए, खुद की विचारधारा को किनारे रख, लाल झंडे के नीचे।
1996 में ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के मसले पर सीपीएम में मतभेद था। संगठन की ना की वजह से बसु प्रधानमंत्री बनने-बनते रह गए थे। ए बी वर्धन ने बाद में इसे भारत के कम्युनिस्ट दलों की ऐतिहासिक भूलों में एक करार दिया था। उन्होंने स्पष्ट कहा था, कि उस दौर की राजनीति में ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी कोई बड़ा बदलाव नहीं होने वाला था। लेकिन अगर ऐसा हुआ होता तो सबसे पिछड़े समाज में एक बड़ा संदेश जरूर जाता।
नब्बे के दशक की शुरुआत में देश में आर्थिक सुधारों की बयार बहने लगी। वैश्वीकरण की अवधारणा ने बाजार और अर्थव्यवस्था से लेकर आम आदमी की ज़िंदगी तक पर बड़ा असर डाला। लेकिन ए बी वर्धन सरीखे नेता बाखबर थे। वो चकाचौंध से भ्रमित लोगों को आगाह करते रहे। बार-बार कहते और लिखते रहे, कि पूंजीवाद के पास गरीबी, विषमता और बेकारी का कोई इलाज नहीं है। ये सवाल भी उठाते रहे, कि क्यों भारत के हर प्रदेश में किसान और गरीब अपनी जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं ? व्यवस्था को बदलने की उनकी ये लड़ाई कभी खत्म नहीं हुई। जनतांत्रिक क्रांति के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए समाजवाद के रास्ते वो आगे बढ़ते रहे। आखिरी सांस तक ए बी वर्धन व्यवस्था से लड़ते हुए मजदूरों और मजलूमों के हक की आवाज बुलंद करते रहे।

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

शानदार 'वसीम बरेलवी'

उसूलों पे जो आंच आए तो टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हों तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाए
कहां से बचके चलना है कहां जाना ज़रूरी है
थके हारे परिंदे जब बसेरों के लिए लौटें 
सलीकामंद शाखों का लचक जाना ज़रूरी है
सलीका ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
बहुत बेबाक आंखों में ताल्लुक टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है
मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
क्या इसके बाद भी दुनिया में कुछ पाना ज़रूरी है


                                                                     "वसीम बरेलवी"

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया...उजाले के पीछे की 'कालिख'



दो वक़्त की रोटी ना मिले सुकून से
ऐसी मीडिया से मैं तो बाज़ आया
ये शोरे-गुल क्यूं  कैसी ये बदहवासी
अब कौन सा चैनल किससे मात खाया

कोई हिर्स में डूबा है कोई फ़िक्रो ग़म में
कोई बोलता बहुत है कुछ जानता नहीं
कोई बॉस का क़रीबी फिर काम क्यूं करे
इस बेशरम जमात पे रोना आया

अहसास को पैरों तले हैं रौंदते ये लोग
मरने की छुट्टियों को भी टटोलते ये लोग
शीशों की सरहदों के ये बनावटी जुगनू
इनकी अना पे हमको तो हंसना आया

आगोश में इनके सदा रंगीन तितलियां
आंखों में चमकती हैं नोटों की गड्डियां
पाक पेशे की ये दाग़दार हस्तियां
सब माफ़ हैं इनकी गुस्ताख़ियां...


सोमवार, 3 मार्च 2014

मौत रुला कर जाती है...




पच्चीस फ़रवरी के दिन मैं अपने घर इलाहाबाद में था...दोपहर के वक़्त मेरे पास लाइव इंडिया के पत्रकार अमान का फ़ोन आया...पता चला, कि उसकी मां की तबीयत बहुत ख़राब है...उन्हें नोएडा-सेक्टर 62 के फ़ोर्टिस अस्पताल में भर्ती किया गया है...मायूस अमान को मैंने हिम्मत दी...और नोएडा लौटने पर अस्पताल पहुंचने की बात कही...पहली मार्च को दोपहर एक बजे के क़रीब इलाहाबाद से नोएडा पहुंचा...नहा-धोकर दो बजे ऑफ़िस चला गया...दो मार्च को दोपहर बारह बजे के क़रीब अमान को फ़ोन किया...वो बेहद मायूस था...उसकी मां की हालत नाज़ुक थी...मैंने शाम तक अस्पताल पहुंचने की बात कही...अस्पताल जाने के लिए देर शाम ऑफ़िस से दो घंटे पहले ही निकल गया...साढ़े आठ बजे भास्कर न्यूज़ के अविनाश तिवारी के साथ अस्पताल पहुंचा...अमान को फ़ोन किया, तो उसने उठाया नहीं...लाइव इंडिया के ऐंकर चंदन सिंह को फ़ोन करने पर पता चला, कि दोपहर में अमान की मां गुज़र गईं...वो लोग मिट्टी के लिए मुरादाबाद रवाना हो गए...अब उसे दूसरा फ़ोन मिलाने की हिम्मत मुझमे नहीं बची थी...
 
दस बारह दिन के अंदर मुझे इस तरह की ये दूसरी ख़बर मिली थी...बीस फ़रवरी को राजस्थान पत्रिका-जयपुर के पत्रकार आरिफ़ ख़ान का मैसेज (सर...मैंने अपनी मां खो दी) भी मुझे अफ़सोस की ज़द में डुबो गया था...समझ में नहीं आ रहा था, कि बड़े भाई की तरह मानने वाले उस लड़के को क्या कह कर दिलासा दूं...

मौत ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच है...जाने वाला अपनी यादें छोड़कर जाता है...लेकिन उन यादों के सहारे जीने की बात कहना बेमानी है...मरने वाले की यादें हमेशा आंखों को नम करती हैं... मौत अफ़सोस देती है, लेकिन उसे टाला और नकारा नहीं जा सकता...ये कुदरत का निज़ाम है...नई ज़िंदगियां किलकारी मारकर ख़ुशियां बिखेरती हैं...और ज़िंदगी की तमाम धूप-छांव देखने वाला एक रोज़ इतनी बड़ी दुनिया को छोड़ सबसे लंबे सफ़र को निकल जाता है...लेकिन ये फ़लसफ़े किसी के ग़म को कम नहीं कर सकते...मैं इस बात को बख़ूबी जानता हूं...क्योंकि अभी एक साल भी नहीं बीते मेरी मां को गुजरे हुए...उस पाक रूह की याद जब-तब आंख भिगो जाती है...

सोमवार, 21 मई 2012

मां

मां












ब्लॉग पर पहली पोस्ट के लिए मेरे पास इससे बेहतर कोई
विषय नहीं था। मां यानी ऐसा अलफ़ाज़, जिसे परिभाषित
करने के लिए भाषा के सारे शब्द कम पड़ेंगे। इसके मायनों को
बयां किया जाए, तो सारी दुनिया के पेज कम पड़
जाएंगे। चंद मिनटों पहले जन्म लेने वाला बच्चा मां
की गोद में आकर रोना बंद कर देता हैभले उसकी आंखें
ठीक से ना खुली हों, वो मां के स्पर्श को बखूबी समझता है।
मां के प्रेम और त्याग की मिसाल दुनिया के किसी
और रिश्ते से नहीं दी जा सकती। इस्लाम में कहा गया है, कि
मां के कदमों के नीचे जन्नत होती है
इसकी व्याख्या है, कि मां की हर आज्ञा पर सिर झुकाना चाहिए
और वही काम  करना चाहिए, जिसमें मां की रज़ामंदी हो।
सूरदास ने मां  यशोदा और बाल कृष्ण के प्रेम को –
मैंया मोरी मैं नहीं  माखन खायों
मैंया मोरी मैं तो चंद्र खिलौना लेहौं
और...
मैंया मोरी दाऊ बहुत खिजैहों
-जैसी कविताओं में व्यक्त किया।
मां की अहमियत का बखान शायरों ने भी खूब किया है।
शायर मुनव्वर राणा ने मां पर
जज़्बाती शेर लिखे हैं। मुनव्वर का एक शेर है-
किसी को घर मिला हिस्से में, या कोई दुकां आई,
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में मां आई।
उनका एक और शेर है-
मुनव्वर मां के सामने कभी खुल कर नहीं रोना,
जहां बुनियाद रहती है, नमी अच्छी नहीं होती।
या फिर-
ऐ अंधेरे देख तेरा मुंह काला हो गया,
मां ने आंखें खोल दीं, घर में उजाला हो गया।
मां की हस्ती को बयां करने वाली शायरी की बात की जाए
तो ताहिर फ़राज़ को कैसे भूला जा सकता है। माई नाम से
लिखी गई उनकी एक नज्म बहुत मक़बूल हुई है-
अंबर की ये ऊंचाई
धरती की ये गहराई
तेरे मन में है समाईमाई ओ माई
तेरा मन अमृत का प्याला
यही काबा यही शिवाला
तेरी ममता पावनदाईमाई ओ माई
जी चाहे क्यों तेरे साथ रहूं
मैं बनके तेरा हमजोली
तेरे हाथ ना आऊं छुप जाऊं
यूं खेलूं आंख मिचौली
परियों की कहानी सुनाके
कोई मीठी लोरी गाके
कर दे सपने सुखदाईमाई ओ माई
संसार के ताने-बाने से
घबराता है मन मेरा
इन झूठे रिश्ते-नातों में
बस प्यार है सच्चा तेरा
सब दुख, सुख में ढल जाएं
तेरी बाहें जो मिल जाएं
मिल जाए मुझे ख़ुदाईमाई ओ माई
फिर कोई शरारत हो मुझसे
नाराज़ करूं फिर तुझको
फिर गाल पे थप्पी मार के तू
सीने से लगा ले मुझको
बचपन की प्यास बुझा दे
अपने हाथों से खिला दे
पल्लू से बंधी मिठाईमाई ओ माई
प्रतापगढ़ के रहने वाले इलाहाबाद में पढ़ाई पूरी करने वाले
युवा शायर इमरान अहमद ख़ान ने भी मां की अहमियत
को अलफ़ाज़ दिए हैं। प्रतापगढ़ में हुए एक मुशायरे में
उन्होंने ये शेर पेश किया, तो लोग झूम उठे-
अपने शहर की ताज़ी हवा लेके चला हूं,
हर मर्ज़ की यारों मैं दवा लेके चला हूं ।
मुझको यकीं है रहूंगा मैं तो कामयाब,
यारों मैं घर से मां की दुआ लेके चला हूं।