साल 2004 का मई महीना था। 13 तारीख को
घोषित हुए चुनावी नतीजों में कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने भारतीय
जनता पार्टी के एनडीए को बुरी तरह से मात दी थी। उस दौर में अटल बिहारी वाजपेई
सरकार की नाकामियों का ठीकरा विनिवेश मंत्रालय पर भी फूटा था। अटल सरकार के उस नए
बनाए गए मंत्रालय के खिलाफ चुनाव के दौरान और उससे पहले खूब माहौल बनाया गया था।
बहरहाल चुनाव परिणाम में 61 सीट पाने वाले वामपंथी संगठनों के सूरमा भी गदगद थे।
सालों से देश की राजनीति और वाम दलो के बड़े नेता के तौर पर शुमार होते रहे ए बी
वर्धन भी पूरे जोश में थे। सरकार गठन से पहले उनसे किसी पत्रकार ने सवाल किया, “ विनिवेश मंत्रालय का क्या होगा ?” उनका जवाब था, “भाड़ में गया विनिवेश मंत्रालय”…ये बानगी थी उस
राजनीतिक परिवेश की जिसे कॉमरेड ए बी वर्धन ने जिया था, उन वामपंथी और सामाजिक
उसूलों के लिए, जिनके सपने उन्होंने अपनी नौजवानी यानी आजादी के पहले चालीस के दशक
में देखे थे। बेशक देश में आम आदमी के हालात में चमत्कारिक परिवर्तन नहीं हुए, लेकिन ऐसा नहीं है, कि तस्वीर नहीं बदली। इस
बदलाव के लिए जिस जीवटता की जरूरत थी, उसके लिए ए बी वर्धन के कदम ताज़िंदगी नहीं
लड़खड़ाए।
2 जनवरी को 92 साल की उम्र में ए बी वर्धन
दुनिया छोड़ गए। तबीयत बिगड़ने के बाद उन्हें दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल में
भर्ती कराया गया था। वहीं उन्होंने अंतिम सांस ली। कॉमरेड वर्धन संयुक्त भारत के
बारिसाल (अब बांग्लादेश में) में जन्मे थे। वो उन वामपंथी नेताओं में शुमार थे जो
अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी का हिस्सा रहे। उस दौर में वो ऑल इंडिया स्टूडेंट
फ़ेडरेशन के सक्रिय नेता थे। 1941-42 में वे नागपुर यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष चुने गए।
उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार वसंत साठे को हराया था, जो बाद में
कांग्रेस में शामिल हुए। कॉमरेड वर्धन ने 1957 में नागपुर से विधानसभा चुनाव में
किस्मत आजमाई और जीत भी हासिल की। 1967 और 1980 में वे नागपुर से लोकसभा चुनाव में
उतरे, लेकिन दोनों बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद वो चुनावी राजनीति
से अलग होकर पार्टी संगठन की सियासत में सक्रिय हो गए। 1996 में इंद्रजीत गुप्ता
के केंद्रीय मंत्री बनने के बाद वर्धन सीपीआई के महासचिव बनाए गए। महाराष्ट्र में आंदोलनों
की बात करें, तो वहां मजदूर संगठनों को खड़ा करने और उसे मजबूत बनाने में उनका
बड़ा योगदान था।
ए बी वर्धन कई भाषाएं जानते थे। वे हिंदी
के बेहतरीन वक्ता थे। अंग्रेजी, मराठी और बंग्ला भाषा भी वो धाराप्रवाह बोलते थे। पार्टी
के कार्यक्रमों में वो वाम संगठन के गीत पूरे सुर में गाते थे। रचनात्मक प्रवृत्ति
के धनी कॉमरेड वर्धन ने एक दर्जन से ज्यादा किताबें लिखीं। उनकी किताबों के केंद्र
में समाजवादी व्यवस्था की स्थापना, मजदूर संगठन, दलित वर्ग की समस्याएं और फिरकों
में बटे समाज की चिंताएं थीं। ए बी वर्धन ट्रेड यूनियनों के प्रबल पक्षधर थे। ये
उनका व्यक्तित्व था, कि परस्पर विरोधी विचारधारा के भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठन
भी कई बार मजदूर हितों के लिए उनके साथ खड़े हुए, खुद की विचारधारा को किनारे रख,
लाल झंडे के नीचे।
1996 में ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने
के मसले पर सीपीएम में मतभेद था। संगठन की ना की वजह से बसु प्रधानमंत्री बनने-बनते
रह गए थे। ए बी वर्धन ने बाद में इसे भारत के कम्युनिस्ट दलों की ऐतिहासिक भूलों
में एक करार दिया था। उन्होंने स्पष्ट कहा था, कि उस दौर की राजनीति में ज्योति
बसु के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी कोई बड़ा बदलाव नहीं होने वाला था। लेकिन अगर
ऐसा हुआ होता तो सबसे पिछड़े समाज में एक बड़ा संदेश जरूर जाता।
नब्बे के दशक की शुरुआत में देश में
आर्थिक सुधारों की बयार बहने लगी। वैश्वीकरण की अवधारणा ने बाजार और अर्थव्यवस्था से
लेकर आम आदमी की ज़िंदगी तक पर बड़ा असर डाला। लेकिन ए बी वर्धन सरीखे नेता बाखबर
थे। वो चकाचौंध से भ्रमित लोगों को आगाह करते रहे। बार-बार कहते और लिखते रहे, कि
पूंजीवाद के पास गरीबी, विषमता और बेकारी का कोई इलाज नहीं है। ये सवाल भी उठाते
रहे, कि क्यों भारत के हर प्रदेश में किसान और गरीब अपनी जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं
? व्यवस्था को बदलने की उनकी ये लड़ाई कभी खत्म नहीं हुई। जनतांत्रिक
क्रांति के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए समाजवाद के रास्ते वो आगे बढ़ते रहे। आखिरी
सांस तक ए बी वर्धन व्यवस्था से लड़ते हुए मजदूरों और मजलूमों के हक की आवाज बुलंद
करते रहे।